“आतंकवाद से जातीय आतंकवाद तक: From terrorism to ethnic terrorism

yash
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न्यूज़ आर्टिकल:

नई दिल्ली, 26 अप्रैल 2025 – From terrorism to ethnic terrorism

भारत आज दोहरे संकट से जूझ रहा है। एक ओर आतंकवाद की चुनौती है, तो दूसरी ओर जातीय आतंकवाद (जाति आधारित हिंसा) की बहस ने देश को झकझोर दिया है। बीजेपी के छत्तीसगढ़ हैंडल के एक ट्वीट—“धर्म पूछा, जाति नहीं”—ने सोशल मीडिया पर तूफान खड़ा कर दिया है। यह ट्वीट धार्मिक एकता की बात कहता था, लेकिन इसने जातीय भेदभाव पर सवाल उठा दिए। उधर, हाल के आतंकी हमलों के जवाब में सरकार ने पाकिस्तान के खिलाफ सख्त कदम उठाए हैं, जैसे सिंधु जल समझौता रद्द करना और सीमा बंद करना। लेकिन इन कदमों की प्रभावशीलता पर सवाल उठ रहे हैं। इस बीच, चंद्रशेखर आजाद जैसे नेता जातीय आतंकवाद को राष्ट्रीय बहस का हिस्सा बना रहे हैं, जो सामाजिक और राजनीतिक बदलाव की मांग कर रहा है।

जातीय आतंकवाद: नया मुद्दा, गहरी जड़ें

“जातीय आतंकवाद” शब्द अब भारत की सियासत में गूंज रहा है। भीम आर्मी के नेता चंद्रशेखर आजाद ने X पर ट्वीट कर जाति आधारित हिंसा को “जातीय आतंक” करार दिया। मध्य प्रदेश के बालाघाट में आदिवासी नाबालिगों के साथ सामूहिक बलात्कार और हरियाणा के मंदरी में वाल्मीकि समुदाय के 60 परिवारों को बेघर करने की घटनाओं ने उनके दावे को बल दिया। सोशल मीडिया पर लोग जातीय हिंसा को आतंकवाद से जोड़ रहे हैं। एक यूजर ने लिखा, “जातीय आतंकवाद सिर्फ शब्द नहीं, लाखों लोगों की हकीकत है।”

यह बहस बीजेपी के ट्वीट के बाद और तेज हुई, जिसे कई लोगों ने जातीय मुद्दों से ध्यान भटकाने की कोशिश माना। “जाति की बात क्यों नहीं करते?” एक X यूजर ने सवाल किया। टीकमगढ़ में अनुसूचित जाति की बारात पर हमला और मंदरी में दलितों का बहिष्कार जैसे मामले इस बहस को और हवा दे रहे हैं।

बीजेपी का ट्वीट और विवाद

From terrorism to ethnic terrorism

बीजेपी छत्तीसगढ़ के ट्वीट का मकसद धार्मिक एकता को बढ़ावा देना था, लेकिन यह उल्टा पड़ गया। ट्वीट ने जातीय हिंसा पर चुप्पी को लेकर बीजेपी की आलोचना को हवा दी। जयपुर में बीजेपी विधायक बालमुकुंद आचार्य ने जामा मस्जिद के सामने पाकिस्तान विरोधी पोस्टर लगाए, जिससे सांप्रदायिक तनाव बढ़ा। सोशल मीडिया पर लोग पूछ रहे हैं, “जातीय हिंसा पर चुप्पी क्यों, लेकिन धर्म की बात जोर-शोर से?”

बीजेपी की सहयोगी रही अकाली दल की सांसद हरसिमरत कौर बादल ने भी सवाल उठाया। उन्होंने कहा कि अटारी सीमा बंद करना ठीक है, लेकिन गुजरात और महाराष्ट्र के बंदरगाहों से पाकिस्तान के साथ व्यापार क्यों जारी है? “बड़े कारोबारियों को नुकसान नहीं होना चाहिए, लेकिन आम जनता पर सख्ती?” एक X पोस्ट में तंज कसा गया।

आतंकवाद पर सरकार का रुख: कितना कारगर?

पहलगाम में हुए हालिया आतंकी हमले के बाद सरकार ने पाकिस्तान के खिलाफ कई कदम उठाए:

  • सिंधु जल समझौता रद्द: भारत ने 1960 के समझौते को निलंबित कर दिया, जिससे पाकिस्तान को पानी की आपूर्ति रोकी जा सकती है।
  • सीमा और दूतावास बंद: अटारी सीमा पर आवाजाही बंद, पाकिस्तानी नागरिकों के वीजा रद्द, और दोनों देशों के दूतावास बंद कर दिए गए।
  • वीजा प्रतिबंध: अगले आदेश तक पाकिस्तानी नागरिकों को वीजा नहीं दिया जाएगा।

लेकिन इन कदमों पर सवाल उठ रहे हैं। विशेषज्ञ अभिमूत स्वरानंद ने बताया कि सिंधु नदी का पानी रोकने के लिए बांध चाहिए, जिसे बनाने में 25 साल और अरबों रुपये लगेंगे। “यह दिखावटी कदम है,” उन्होंने नेशनल दस्तक को बताया। X पर एक यूजर ने इसे “मीडिया मैनेजमेंट” करार दिया।

पहलगाम हमले में सुरक्षा चूक ने भी सवाल खड़े किए। पर्यटक स्थल से सीआरपीएफ को हटाने का फैसला किसने लिया? एक पूर्व सैन्य अधिकारी ने X पर पूछा, “खुफिया तंत्र कहां था?” कुछ लोग इसे 2019 के पुलवामा हमले से जोड़कर सियासी साजिश का आरोप लगा रहे हैं, खासकर बिहार और बंगाल में चुनावों के मद्देनजर।

जनता का गुस्सा और मीडिया की भूमिका

मीडिया की भूमिका भी कटघरे में है। टीवी चैनल “पाकिस्तान पर 400 हमले” की बात करते हैं, लेकिन सोशल मीडिया पर लोग इसे हिंदू-मुस्लिम तनाव भड़काने का हथकंडा मानते हैं। दिल्ली की जामा मस्जिद पर पाकिस्तान के खिलाफ प्रदर्शन की तस्वीरें वायरल हैं, लेकिन जयपुर में सांप्रदायिक उकसावे के लिए FIR भी दर्ज हुई है। “मीडिया पाकिस्तान से टीवी पर लड़ रहा है, लेकिन जातीय हिंसा को नजरअंदाज कर रहा है,” एक X यूजर ने लिखा।

अग्निपथ योजना भी चर्चा में है। X पर साझा आंकड़ों के मुताबिक, सेना भर्ती में 68% और प्रशिक्षण में 80% की कमी आई है। “युवा सेना में क्यों नहीं जा रहे? चार साल बाद बेरोजगारी का डर है,” एक सैनिक ने वायरल वीडियो में कहा।

जातीय आतंकवाद: समाज की गहरी बीमारी

जातीय आतंकवाद की बहस ने नई ताकत पकड़ी है। बालाघाट में आदिवासी नाबालिगों के साथ बलात्कार और मंदरी में दलितों का बहिष्कार जैसे मामले इसकी बानगी हैं। चंद्रशेखर आजाद ने इसे “जातीय आतंक” कहा और जातिगत जनगणना की मांग की। 25 अप्रैल को रिलीज हुई फिल्म फुले ने भी जातीय उत्पीड़न पर बहस को तेज किया, हालांकि कुछ समूह इसके खिलाफ हैं।

सोशल मीडिया पर लोग कह रहे हैं, “जातीय आतंकवाद शिक्षा, नौकरी और सियासत में 90% आबादी को पीछे रखता है।” मंदिरों में वसूली और नौकरियों में भेदभाव की कहानियां भी वायरल हैं। “जाति ने देश को कमजोर किया, वरना अशोक का भारत अजेय होता,” एक यूजर ने लिखा।

आगे की राह

भारत के सामने दोहरी चुनौती है। आतंकवाद के खिलाफ सख्ती जरूरी है, लेकिन जातीय आतंकवाद को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। उमर अब्दुल्ला का सवाल—“पीओके वापस लेने से किसने रोका?”—लोगों के गुस्से को दर्शाता है। लेकिन असली सवाल यह है कि क्या सरकार दोनों मोर्चों पर एकसमान ताकत दिखाएगी?

सोशल मीडिया अब सच का आईना बन चुका है। बीजेपी पर सवाल उठ रहे हैं, और जातीय आतंकवाद की बहस थमने वाली नहीं है। जैसे-जैसे देश बांध, सीमाओं और ट्वीट्स पर बहस कर रहा है, एक सवाल बाकी है: क्या भारत आतंकवाद और जातीय आतंकवाद दोनों को एकसाथ हरा सकता है? जवाब सरकार के कदमों और जनता की जागरूकता में छिपा है।

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